एक दिन एक राजा भगवान बुद्ध के पास आया | बुद्ध के आश्रम में बहुत भीड़ थी | राजा ने आग्रह किया कि वह एकांत में कुछ कहना चाहता है |
बुद्ध बोले : मोंदों नयन कतहूँ कोई नाही |
सर्वथ : एकांत है… यहीं बोलो |
राजा ने कहा कि मैं सन्यास लेना चाहता हूं | बुद्ध गंभीर हो गए वो बोले कि तुम्हे संयस्त्र होने के लिए दीक्षा के पहले मेरी एक शर्त का पालन करना होगा |
राजा ने आश्वस्त किया कि जब दीक्षा लेनी है और संयस्त्र को प्राप्त होना है तो सब शर्तें मंजूर हैं |
बुद्ध ने आदेश दिया कि तुम अपने कपड़े उतारो, जूते उतारो नग्न हो जाओ और अपनी राजधानी के राजमार्गों पर स्वयं को जूते मारते हुए चक्कर लगाकर आओ |
राजा ने वही किया | वो नग्न होकर स्वयं को जूते मारते हुए राजधानी की सड़कों पर दौड़ने लगा | उसके चले जाने पर शिष्यों ने बुद्ध से कहा :
भंते, जब हम दीक्षा लेने आए थे तब तो आपने ऐसी कठोर शर्त नहीं लगाई थी आप तो स्वयं करुणा अवतार हैं फिर राजा के साथ ऐसा कठोर व्यवहार क्यों ?
जब तुम लोग सन्यास लेने आए थे तुम्हारे अहंकार बहुत बड़े नहीं थे | सो तुमसे भिक्षा टन करवा कर ही काम बन गया | यह तो राजा है इसका अहंकार बहुत बड़ा है |
इसलिए महारोग की दवाई भी अधिक शक्तिशाली होती है |
राजा जब इस दशा में अपने परिजनों के सामने से गुजरेगा तो उसका अहंकार चूर-चूर हो जाएगा |
राजा ने शाम तक शर्त पूरी कर ली वो बुद्ध के चरणों में आकर अष्टांग हो गया | भंते, मुझे दीक्षा देकर अब तो संयस्त्र करें |
बुद्ध ने राजा के सर पर मुकुट रखा और कहा – अब तुम्हें संन्यास लेने की जरूरत नहीं है जाओ और कर्ता भाव छोड़कर साक्षी भाव से राज करो | अब तुम राजश्री हो चुके हो |