एक दिन भगवान बुद्ध के शिष्यों में त्याग और लोभ जैसे विषयों पर चर्चा हो रही थी | बहुत समय बीतने पर भी शिष्य किसी निर्णय पर नहीं पहुंचे तो सब मिलकर भगवान बुद्ध के पास पहुंचे |
भगवान बुद्ध उनकी समस्या का समाधान करते हुए बोले – किसी नगर में एक सेठ रहता था | उसके पास बहुत धन था | उसकी तिजोरियाँ हमेशा मोहरों से भरी रहती थीं लेकिन उसका लोभी मन नहीं मानता था |
जैसे-जैसे धन बढ़ता जाता था | उसकी लालसा और भी बढ़ती जाती थी |
सेठ बहुत ही कंजूस था | कभी किसी को एक कौड़ी भी नहीं देता था | यदि कोई उसके दरवाजे पर आकर हाथ फैलाता तो वह उसे धुत्कार देता था |
संयोग से उसके यहां एक साधु आया उसे देखकर अचानक सेठ को जाने क्या सूझा कि उसने एक पैसा निकालकर उसकी झोली में डाल दिया |
साधु चला गया |
लेकिन सेठ के आश्चर्य का ठिकाना ना रहा | जब उसने देखा कि शाम को उसे एक मोहर प्राप्त हुई |
पैसे के बदले में मोहर, वाह..!! मारे खुशी के वह कूदने लगा | | परंतु थोड़ी ही देर बाद उसकी सारी खुशी काफुर हो गई |
उसके भीतर कोई कह रहा था ओ मुर्ख तूने साधु को पैसा ही क्यों दिया ? यदि एक मोहर दी होती, तो तू ना जाने कितना मालामाल हो जाता..!!
ऐसा विचार आते ही सेठ ने अपने को धिक्कारा… हां, सचमुच मैंने मूर्खता की |
अब वह साधु के आने का पाठ जपने लगा | पर उसे अधिक प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ी |
अगले दिन ही वो साधु फिर आ गया | साधु को देखते ही उस सेठ ने झट से अपनी तिजोरी से एक मोहर निकाली और साधू की झोली में डाल दी |
मोहर लेकर साधु चला गया |
तू सेठ के लिए एक एक पल, एक एक युग के समान हो गया | वो चाहता था कि कैसे भी शाम हो जाए | फिर शाम हु,ई रात भी हुई लेकिन उसकी इच्छा पूरी नहीं हुई | मोहरें मिलना तो दूर, हाथ में आई मोहरें भी चली गई | वह सिर धुनने लगा | तभी आकाशवाणी हुई कि सेठ याद रख ” त्याग फलता है, लोभ छलता है ”
कथा सुनकर शिष्य त्याग और लोभ का मर्म जान गए |
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